किशोर कुमार: एक जीवनी
हिंदी सिनेमा के बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार
किशोर कुमार का परिचय
किशोर कुमार को व्यापक रूप से एक "बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व" और "हिंदी सिनेमा के दिग्गज" के रूप में सराहा जाता है। उन्हें एक "ईश्वर प्रदत्त गायक, योडलिंग स्टार" के रूप में वर्णित किया गया है जिनकी आवाज़ "वातावरण में गूंजती रहेगी" और जिनके गाने "सदाबहार और अद्भुत" बन गए। उन्हें "गायन का राजा" माना जाता था, जिनके पास कलाकारों को सुपरस्टारडम तक पहुँचाने की अनूठी क्षमता थी।
अपनी पौराणिक गायन प्रतिभा के अलावा, किशोर कुमार की प्रतिभा अभिनय, निर्माण, निर्देशन और लेखन तक फैली हुई थी। उन्हें उनके मजाकिया, जीवंत और अक्सर जिद्दी स्वभाव के लिए याद किया जाता है। आज भी, वे "हर दिल" में एक विशेष स्थान रखते हैं और उन्हें "अत्यधिक प्यार" मिलता रहता है।



प्रारंभिक जीवन और बचपन (1929-1940 के दशक)
किशोर कुमार का जन्म 4 अगस्त, 1929 को खंडवा, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनके पिता, कुंजिलाल गांगुली, एक प्रमुख वकील थे, और उनकी माँ गौरी देवी थीं। वे चार भाई-बहनों में सबसे छोटे थे, उनके बड़े भाई अशोक कुमार और अनूप कुमार, और एक बहन सती देवी थीं।
शुरुआत में उनका नाम आभास कुमार था, उनका नाम एक पंडित ने "सा" से शुरू करने का सुझाव दिया था। बचपन में, वे शरारती होने के लिए जाने जाते थे, और दिलचस्प बात यह है कि उनकी आवाज़ को शुरू में मधुर नहीं माना जाता था। उनके पैर के अंगूठे में एक महत्वपूर्ण चोट, जिसके कारण वे एक महीने तक लगातार रोते रहे, को हास्यपूर्वक उनकी "खराब आवाज़" को "मधुर आवाज़" में बदलने का श्रेय दिया जाता है।
उन्होंने संगीत के प्रति गहरी रुचि विकसित की, अक्सर ग्रामोफोन सुनते थे और केएल सहगल के गानों में अत्यधिक रुचि दिखाते थे, जिनकी वे सावधानीपूर्वक नकल करते थे। उनके भाई अशोक कुमार (दादामुनि), जो उनसे 18 साल बड़े थे, ने उन्हें एक हारमोनियम प्रदान किया और उन्हें बजाना सिखाया।
वे एक चंचल छात्र थे, अक्सर शिक्षकों की नकल करते थे और स्कूल में शरारतें करते थे। 10वीं कक्षा पास करने के बाद, उन्होंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज (आईसीसी) में दाखिला लिया, और बस मैं अदब नामक एक सांस्कृतिक संगठन में एक कार्यकारी सदस्य के रूप में शामिल हुए। उनके अपरंपरागत पहनावे और केशविन्यास के लिए चिढ़ाए जाने के बावजूद, उनका हंसमुख स्वभाव उन्हें लोकप्रिय बनाता था, और वे खेल, विशेष रूप से फुटबॉल का आनंद लेते थे, जिसे वे अपने विशिष्ट पहनावे में खेलते थे। कॉलेज में उनके गायन को लोकप्रियता मिली, लेकिन उनके प्रिंसिपल ने उन्हें पढ़ाई के बजाय गानों को प्राथमिकता देने के लिए फटकारा, जिससे उनके पिता को उनकी शैक्षणिक कठिनाइयों के बारे में सूचित किया गया।
मुंबई में आगमन और प्रारंभिक करियर संघर्ष (1940 के दशक-1950)
अपनी शैक्षणिक कठिनाइयों और गाने की अटूट इच्छा के कारण, उनके पिता ने अशोक कुमार को आभास को मुंबई लाने की व्यवस्था की। आभास का सपना एक पार्श्व गायक बनने का था, यह मार्ग उनके चचेरे भाई अरुण कुमार मुखर्जी से प्रभावित था, जो एक गायक भी थे और उन्होंने उन्हें विस्तृत सलाह दी थी। अरुण कुमार मुखर्जी को अक्सर उनके गायन की यात्रा को प्रेरित करने का श्रेय दिया जाता है।
उन्होंने मुंबई में अपने गायन करियर को आगे बढ़ाने के लिए कॉलेज बीच में ही छोड़ दिया। अशोक कुमार ने उन्हें अभिनय पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मनाने की कोशिश की, पार्श्व गायन की चुनौतियों और केएल सहगल की नकल करने से परे एक अनूठी शैली विकसित करने की आवश्यकता पर जोर दिया। हालांकि, किशोर कुमार गायक बनने की अपनी महत्वाकांक्षा में दृढ़ रहे। उन्हें औपचारिक संगीत प्रशिक्षण या गुरु की कमी के कारण स्टूडियो में अस्वीकृति का सामना करना पड़ा।
अपने आदर्श, केएल सहगल से मिलने का उनका सपना विभिन्न परिस्थितियों के कारण अधूरा रह गया, जिसमें सहगल की बीमारी और अंततः मृत्यु शामिल थी, एक पछतावा जो किशोर कुमार ने अपने पूरे जीवन में रखा। उन्होंने अनिच्छा से 1946 की फिल्म 'शिकारी' में एक अभिनय भूमिका निभाई, जिसका निर्माण फिल्मिस्तान स्टूडियो ने किया था, जो अशोक कुमार और शशिधर मुखर्जी द्वारा सह-स्थापित एक कंपनी थी। 'शिकारी' के लिए, उन्हें किशोर कुमार का स्क्रीन नाम दिया गया, एक ऐसा नाम जो "इतिहास रचने" और "अमर" बनने के लिए नियत था।
उन्हें सचिन देव बर्मन और सी. रामचंद्र जैसे स्थापित संगीत निर्देशकों से संदेह का सामना करना पड़ा, जिन्होंने उनकी संगीत क्षमता पर सवाल उठाया, यहां तक कि अशोक कुमार को एक कुशल गायक नहीं माना।
गायन में सफलता (1940 के दशक के अंत-1950 के दशक)
उनकी किस्मत तब बदली जब संगीत निर्देशक खेमचंद प्रकाश ने उन्हें बॉम्बे टॉकीज में केएल सहगल के गाने गुनगुनाते हुए सुना और वे बहुत प्रभावित हुए। खेमचंद प्रकाश ने उन्हें फिल्म 'जिद्दी' में गाने की पेशकश की, उन्हें अपनी "खुद की अनूठी शैली" विकसित करने की सलाह दी। उनका पहला रिकॉर्ड किया गया गाना एक सफलता थी, जिससे कई लोगों को यह एहसास हुआ कि "आज भारतीय सिनेमा में एक नया गायक पैदा हुआ है।"
उन्होंने 1948 की फिल्म 'एग्रावेटेड सिचुएशन' में एक छोटी सी भूमिका भी निभाई, जहाँ उनकी पहली मुलाकात देव आनंद से हुई, जिससे एक लंबी और स्थायी दोस्ती शुरू हुई। उन्हें मोहम्मद रफी, मन्ना डे, मुकेश और तलत महमूद जैसे समकालीन पुरुष गायकों से जबरदस्त प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। 1949 की फिल्म 'रिमझिम' से उनका गाना "जगमाल करता निकला" एक हिट बन गया।
उन्होंने अपनी अनूठी योडलिंग शैली के लिए व्यापक पहचान हासिल की, जिसे उन्होंने अमेरिकी गायक जिम रोजर्स से प्रेरित होकर अपनाया था। यह विशिष्ट शैली फिल्म 'मुकद्दर' के गाने "आती है याद हमको" में प्रदर्शित होने के बाद अविश्वसनीय रूप से प्रसिद्ध हो गई।
अभिनय और कॉमेडी में प्रवेश (1950 के दशक)
शुरुआत में, उन्हें अभिनय भूमिकाएँ निभाने के लिए मजबूर किया गया था, बड़े पैमाने पर उनके भाई अशोक कुमार की सलाह पर। नायक के रूप में उनकी शुरुआती फिल्में, जैसे 'सती' (1948), 'आंदोलन' (1951), 'मैं द्वार' (1950), 'दो' (1952), 'तमाशा', 'छम छम्मा छम', और 'फर्ज' (1953), ने महत्वपूर्ण सफलता हासिल नहीं की।
उन्होंने 1953 की फिल्म 'लड़की' में एक हास्य अभिनेता के रूप में काफी सफलता हासिल की। बिमल रॉय की 'नौकरी' (1954) में, उन्होंने एक बेरोजगार युवक का किरदार निभाया, जिसमें उन्होंने हास्य और गंभीर दोनों भूमिकाओं में अपनी बहुमुखी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। 'रुखसाना' (1958), 'लोहे का पुल' (1954), और 'भागमभाग' (1956) जैसी फिल्मों ने एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में उनकी स्थिति को मजबूत किया, जिससे निर्माता सक्रिय रूप से उन्हें तलाशने लगे।
'भाई भाई' (1956), जिसमें अशोक कुमार और किशोर कुमार दोनों शामिल थे, एक बड़ी हिट थी और उनकी पहली फिल्म एक साथ थी। उन्होंने मीना कुमारी, वैजयंती माला, शकीरा सहित युग की प्रमुख अभिनेत्रियों के साथ सहयोग किया, और सबसे विशेष रूप से, 'चलती का नाम गाड़ी' (1958) में मधुबाला के साथ, एक ऐसी फिल्म जिसने "सुपर डुपर हिट कॉमेडी फिल्म" का दर्जा हासिल किया।
व्यक्तिगत जीवन और संबंध
रूमा घोषाल से पहली शादी (1950-1958)
उन्होंने 'मशाल' (1950) के सेट पर रूमा घोषाल, एक जूनियर कलाकार से मुलाकात की। सुनील बिस्वास के सांस्कृतिक कार्यक्रमों और होटलों में मुलाकातों के माध्यम से उनका रिश्ता फला-फूला। उन्होंने शादी करने का फैसला किया, लेकिन जातिगत मतभेदों और माता-पिता की अस्वीकृति के कारण, उन्होंने एक गुप्त कोर्ट मैरिज का विकल्प चुना। अशोक कुमार ने शादी की सूचना का पता लगाया, जिससे शुरू में परिवार नाराज हो गया, लेकिन किशोर कुमार अंततः अपनी माँ और पिता को मनाने में कामयाब रहे। उनका एक बेटा, अमित कुमार, 3 जुलाई, 1958 को पैदा हुआ था। उनकी शादी 1958 में रूमा की करियर आकांक्षाओं पर अलग-अलग विचारों के कारण तलाक में समाप्त हो गई; वह अभिनय करना चाहती थी, जबकि वह उसे घर और बच्चे पर ध्यान केंद्रित करना पसंद करते थे। रूमा बाद में अमित के साथ कोलकाता चली गईं।
मधुबाला से दूसरी शादी (1960-1969)
उन्हें मधुबाला से गहरा प्यार हो गया, जो शुरू में झिझकती थीं लेकिन अंततः उनके अटूट "पागलपन" और दृढ़ता के कारण उनके प्यार को स्वीकार कर लिया। उन्होंने 1 अक्टूबर, 1960 को शादी की। शादी से पहले, मधुबाला के पिता ने किशोर कुमार को उनकी गंभीर हृदय स्थिति के बारे में सूचित किया था। किशोर कुमार ने मधुबाला से शादी करने के लिए अपना धर्म भी बदल लिया। वे इलाज के लिए लंदन गए, लेकिन यह पुष्टि हो गई कि मधुबाला की स्थिति लाइलाज थी, और उनके पास जीने के लिए केवल कुछ साल थे। अपने माता-पिता को खुश करने के लिए, किशोर कुमार ने हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार मधुबाला से दोबारा शादी की, लेकिन उनके माता-पिता ने उन्हें कभी पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया। मधुबाला के बिगड़ते स्वास्थ्य और उनके घर, गौरी कुंज के पास हवाई अड्डे से आने वाले शोर के कारण उन्हें अपने पिता के घर वापस जाना पड़ा। किशोर कुमार ने उनके सभी चिकित्सा खर्चों का वहन किया और उनसे नियमित रूप से मिलने जाते थे। मधुबाला का 22 फरवरी, 1969 को निधन हो गया। किशोर कुमार बहुत दुखी थे और उन्हें अपने अंतिम क्षणों में उनके साथ न होने का पछतावा था, अक्सर उनके दुख और उन्हें खुश रखने के उनके प्रयासों को याद करते थे।
योगिता बाली से तीसरी शादी (1976-1978)
उन्होंने कॉमेडियन महमूद की फिल्म '156 सोन' की शूटिंग के दौरान अभिनेत्री योगिता बाली से मुलाकात की। उनकी प्रसिद्धि और स्वभाव से आकर्षित होकर, योगिता बाली और किशोर कुमार ने शादी करने का फैसला किया, उम्मीद है कि उनकी एकाकीपन को कम किया जा सके। उनकी शादी अल्पकालिक थी, तनाव से चिह्नित थी, और 1978 में तलाक में समाप्त हो गई। किशोर कुमार को लगा कि यह एक "मजाक" था और वह शादी के बारे में गंभीर नहीं थीं। योगिता बाली ने जल्द ही मिथुन चक्रवर्ती से शादी कर ली, जिससे कथित तौर पर किशोर कुमार नाराज हो गए। इसके बावजूद, किशोर कुमार ने बाद में मिथुन चक्रवर्ती के लिए कई हिट गानों को अपनी आवाज़ दी।
लीना चंद्रवरकर से चौथी शादी (1981-1987)
उन्होंने अभिनेत्री लीना चंद्रवरकर से मुलाकात की, जो एक विधवा थीं और शुरू में फिल्मों में काम करने के लिए अनिच्छुक थीं। फिल्म की शूटिंग के दौरान उन्हें खुश करने के किशोर कुमार के प्रयासों से उनकी प्रेम कहानी शुरू हुई। उन्होंने मार्च 1981 में शादी की। इस शादी से उनके जीवन में खुशी और परिवार की भावना वापस आ गई। उनकी शादी के एक साल बाद उनका एक बेटा, सुमित कुमार, पैदा हुआ। किशोर दा अपने बेटे के साथ समय बिताना पसंद करते थे।
फिल्म निर्माण और निर्देशन की शुरुआत (1960 के दशक-1970 के दशक)
आयकर के मुद्दों से बचने के लिए, दोस्तों ने उन्हें नुकसान दिखाने के लिए एक फ्लॉप फिल्म बनाने की सलाह दी। उन्होंने अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी, किशोर फिल्म्स बनाई। उनका पहला प्रोडक्शन, बंगाली फिल्म 'लुकोचुरी', विडंबना यह थी कि इसे फ्लॉप करने का इरादा था, लेकिन इसके बजाय वह उस वर्ष (1958) की "सबसे सफल बंगाली फिल्म" बन गई। उन्होंने फिर हिंदी फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' (1958) का निर्माण किया, जिसमें उनके भाई और मधुबाला भी शामिल थे। इस फिल्म ने "सुपर डुपर हिट कॉमेडी फिल्म" का दर्जा हासिल किया।
उन्होंने अपनी पहली निर्देशन की शुरुआत गंभीर फिल्म 'दूर गगन की छाँव में' (1964) से की, जिसमें उन्होंने अपने बेटे अमित कुमार के साथ एक बाल कलाकार के रूप में भी अभिनय किया। फिल्म सफल साबित हुई, हालांकि एक बड़ी हिट नहीं थी। उन्होंने 'सब उस्ताद है', 'अक्लमंद', 'बॉय-लड़की', 'अलबेला मस्ताना', और 'प्यार किया जा' जैसी अन्य सफल कॉमेडी फिल्मों का भी निर्माण किया। उन्होंने अपनी फिल्म 'हम दो डाकू है' में गीत, संगीत, निर्देशन और अभिनय किया, लेकिन यह बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई।
स्टारडम का उदय और "आराधना" प्रभाव (1969 के बाद)
फिल्म 'आराधना' (1969) के लिए उनके गाने स्मारकीय सुपरहिट बन गए और उन्हें अपार वैश्विक प्रसिद्धि मिली, जिससे वे एक शीर्ष पार्श्व गायक के रूप में स्थापित हो गए। वह शुरू में तत्कालीन नए अभिनेता राजेश खन्ना के लिए गाने में झिझक रहे थे, लेकिन उनसे मिलने के बाद उन्हें मना लिया गया। 'आराधना' ने किशोर कुमार और राजेश खन्ना के बीच गहरी दोस्ती को मजबूत किया, जिसमें बाद वाले ने घोषणा की कि केवल किशोर कुमार ही उनकी फिल्मों में उनकी आवाज़ होंगे। इस अवधि ने उनके करियर में एक अभूतपूर्व उछाल को चिह्नित किया, जिसमें कोई और "उतार-चढ़ाव" नहीं था।
स्टेज शो और अंतर्राष्ट्रीय पहचान (1969 के बाद)
शुरुआती स्टेज डर के बावजूद, उन्हें भारत-चीन सीमा पर भारतीय सैनिकों के लिए प्रदर्शन करने के लिए राजी किया गया (संभवतः 1962 के भारत-चीन युद्ध के संदर्भ में, हालांकि प्रतिलेख इसे 1960 के दशक के नारों से जोड़ता है)। उनका पहला स्टेज प्रदर्शन एक शानदार सफलता थी, जिसने प्रभावी रूप से उनके स्टेज डर को दूर किया। इसने लाइव प्रदर्शन में उनके प्रवेश को चिह्नित किया।
उन्होंने विश्व स्तर पर लाइव प्रदर्शन करना शुरू किया, जिसमें "किशोर कुमार नाइट" के नाम से शो होते थे। उन्होंने इंग्लैंड, अमेरिका, अफ्रीका, यूरोपीय और खाड़ी देशों में प्रदर्शनों के साथ दुनिया भर के दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। उन्होंने आशा भोसले के साथ लगभग 700 गाने रिकॉर्ड किए, और उनकी गायन जोड़ी अत्यधिक लोकप्रिय थी। वे अक्सर लाइव शो के दौरान अपने चंचल स्वभाव का प्रदर्शन करते थे, जिसमें कॉमेडी शामिल होती थी और दर्शकों के साथ जुड़ते थे। उन्होंने लता मंगेशकर के लिए अत्यधिक सम्मान रखा, लगातार रिकॉर्डिंग के लिए उनसे ₹1 कम लेते थे। उनका मानना था कि उनकी प्रतिभा "भगवान का उपहार" थी और उन्हें किसी के साथ कोई प्रतिस्पर्धा महसूस नहीं हुई।
चुनौतियाँ और विवाद
आयकर छापे (1965)
उनके घर पर आयकर अधिकारियों द्वारा छापे मारे गए क्योंकि उनके रिटर्न में कथित विसंगतियाँ थीं। उन्हें एक बड़ी राशि का भुगतान करने के लिए मजबूर किया गया, जिसने उन्हें बहुत प्रभावित किया और काम से पहले भुगतान की मांग करने के उनके दृढ़ सिद्धांत का नेतृत्व किया।
फिल्म निर्माताओं के भुगतान के मुद्दे
उन्हें निर्माताओं द्वारा समय पर भुगतान न करने के साथ लंबे समय से चली आ रही समस्याओं का सामना करना पड़ा, जिसके कारण भुगतान की मांग करने के उनके अनूठे तरीके थे, जैसे कि उनके घरों के बाहर चिल्लाना या रिकॉर्डिंग में देरी करना। उनका सिद्धांत था: "जहाँ पैसा नहीं, वहाँ काम नहीं।"
आपातकाल प्रतिबंध (1975)
आपातकाल के दौरान, उन्होंने प्रसिद्ध रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की रैली में मुफ्त में प्रदर्शन करने से इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप, उनके गाने ऑल इंडिया रेडियो (आकाशवाणी) से प्रतिबंधित कर दिए गए, और उनकी फिल्मों को सेंसर कर दिया गया। निर्माताओं को उन्हें कास्ट न करने का निर्देश दिया गया। उन्होंने माफी मांगने से दृढ़ता से इनकार कर दिया, यह दावा करते हुए कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया था और "मनमानी आदेशों" का पालन नहीं करेंगे।
अमिताभ बच्चन के साथ काम करने से इनकार (संक्षेप में)
उन्होंने अमिताभ बच्चन के लिए गाना अस्थायी रूप से बंद कर दिया जब बच्चन ने अपनी एक फिल्म में अतिथि भूमिका से इनकार कर दिया, हालांकि यह नाराजगी लंबे समय तक नहीं चली।
व्यक्तित्व और दर्शन
उन्हें मूडी होने के लिए जाना जाता था, फिर भी साथ ही मजाकिया और मस्ती पसंद भी थे। अपनी अपार सफलता के बावजूद, वे अक्सर अपनी पत्नियों के जीवन से चले जाने के बाद अकेला और खाली महसूस करते थे। उन्हें पेड़ों और पौधों में सांत्वना मिली, उन्हें अपने "सच्चे दोस्त" मानते थे और उनसे बात भी करते थे। इस अनूठी आदत के कारण कुछ लोगों ने उन्हें "पागल" करार दिया, जिस पर उन्होंने हास्यपूर्वक जवाब दिया कि "दुनिया पागल है," वे नहीं।
उन्हें हॉलीवुड हॉरर फिल्में देखना, उपन्यास पढ़ना और टेबल टेनिस खेलना पसंद था। विशेष रूप से, उन्होंने शराब और धूम्रपान से परहेज किया। उन्होंने अपने गुरुओं, जिनमें केएल सहगल और मोहम्मद रफी शामिल थे, के लिए गहरा सम्मान रखा, जानबूझकर उनके गानों को उनसे बेहतर गाने से इनकार कर दिया और उनकी तस्वीरों को प्रमुखता से प्रदर्शित किया। वे अपनी उदारता के लिए जाने जाते थे, अक्सर दूसरों को आर्थिक रूप से मदद करते थे, जैसे अरुण कुमार मुखर्जी और सत्यजीत रे के परिवार को।
उन्हें फिल्म उद्योग और मुंबई से नफरत थी, इसे एक "गंदा शहर" कहते थे जहाँ लोग एक-दूसरे का शोषण करते थे। वे अपने पैतृक घर खंडवा में सेवानिवृत्त होने की लालसा रखते थे। वे शुरू में केवल एक गायक बनना चाहते थे, एक अभिनेता नहीं, और अभिनय से बचने के लिए विभिन्न रणनीति अपनाई, फिर भी उन्होंने अंततः एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में सफलता हासिल की। वे तेजी से एकांतप्रिय हो गए, यहां तक कि अपने घर के बाहर "किशोर कुमार से सावधान" का एक बोर्ड भी लगा दिया और आगंतुकों को रोकने के लिए कंकाल और एक कुत्ता भी रखा। यह झगड़ों और अशिष्टता से बचने का उनका चुना हुआ तरीका था।
पारिवारिक जीवन और बेटों के साथ संबंध
उन्होंने अपनी पहली शादी से अपने बेटे अमित कुमार को बहुत प्यार किया, कम उम्र से ही उनकी गायन आकांक्षाओं का समर्थन किया। उनका रिश्ता करीबी दोस्तों जैसा था। अमित कुमार एक सफल पार्श्व गायक बन गए। लीना चंद्रवरकर के साथ उनका दूसरा बेटा, सुमित कुमार, था। सुमित ने भी एक गायक के रूप में अपने पिता के नक्शेकदम पर चला।
बाद का जीवन और मृत्यु (1980 के दशक)
उन्हें 1981 में कोलकाता हवाई अड्डे पर दिल का दौरा पड़ा। डॉक्टरों ने उन्हें वजन कम करने और अपना काम कम करने की सलाह दी, लेकिन वे अंततः अपनी पिछली आदतों पर लौट आए। वे अप्रैल 1986 में अपनी भाभी, अशोक कुमार की पत्नी की मृत्यु से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें अपनी मृत्यु और दाह संस्कार का एक आवर्ती सपना आता था।
किशोर कुमार का 13 अक्टूबर, 1987 को निधन हो गया, जो संयोग से अशोक कुमार का जन्मदिन भी था। अशोक कुमार के जन्मदिन के लिए एक आश्चर्य की योजना बनाते समय उनकी नौवीं और अंतिम दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु से व्यापक दुख हुआ, हजारों प्रशंसक उनके घर, गौरी कुंज के बाहर जमा हो गए। उनके शरीर को 16 अक्टूबर को अंतिम संस्कार के लिए खंडवा ले जाने से पहले आरके स्टूडियो में श्रद्धांजलि के लिए रखा गया था।
विरासत और प्रभाव
किशोर कुमार एक विपुल गायक थे, जिन्होंने बंगाली, मराठी, असमिया, गुजराती और कन्नड़ सहित कई भाषाओं में गाने गाए थे। उनके पास राजेश खन्ना के लिए अधिकतम संख्या में गाने गाने का रिकॉर्ड है, लगभग 245, एक ऐसा कारनामा जो आज तक बेजोड़ है। उन्हें सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्व गायक के लिए आठ फिल्मफेयर पुरस्कार मिले। मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें लता मंगेशकर पुरस्कार से सम्मानित किया और 1997 में किशोर कुमार पुरस्कार की स्थापना की। उनके गाने दर्शकों के साथ गूंजते रहते हैं, और वे नए गायकों के लिए एक गहरा प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। उनका आखिरी गाना, 1988 की फिल्म 'वक्त की आवाज़' से "गुरु गुरु", मरणोपरांत जारी किया गया था। उनके जीवन पर एक जीवनी पुस्तक शशिकांत द्वारा लिखी गई थी। खंडवा में उनके सम्मान में एक स्मारक, जिसमें एक प्रतिमा और संग्रहालय शामिल है, का निर्माण किया गया है, और उनकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था।
"उनकी आवाज़ और गाने उनकी अमरता सुनिश्चित करते हैं।"
Comments
Post a Comment